01/04/2020
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दो वर्ष पूर्व मुझे विश्वविद्यालय के तृतीय वर्ष के विद्यार्थियों को फेमिनिज्म और राजनीति विषय पर अध्यापन का अवसर मिला था। यह एक वैकल्पिक कोर्स था। सभी लड़कियों ने यह कोर्स तो लिया ही था किंतु लड़कों में केवल कुछ ही इस कोर्स में आए थे। लड़कों ने यह कोर्स कम क्यों लिया था, कहने की जरूरत नहीं है। अधिकांश लोगों की तरह वे लड़के भी यही समझते रहे होंगे कि स्त्रीवाद का सम्बंध महज स्त्रियों से है। सही यह भी था कि आखिर सभी लड़कियों ने यह कोर्स क्यों लिया था क्योंकि अधिकांश यही समझती थीं कि स्त्रीवाद का आधार स्त्री ही है, जो बाद में उनसे बातचीत के दौरान जाहिर हुआ। मुझे यह ईमानदारी से स्वीकार करने दीजिये कि राजनीति का विद्यार्थी होने के बावजूद स्त्रीवाद की मेरी समझ भोथरी या कामचलाऊ ही थी, इन विद्यार्थियों को पढ़ाने के दौरान ही कुछ समझ बढ़ी l जो बात सबसे पहले समझ आई वह यह कि स्त्रीवाद के विमर्श में स्त्री एक महत्वपूर्ण हिस्सा अवश्य है लेकिन यह केवल स्त्रीकेन्द्रित नहीं है l इसकी चिंताओं में स्त्री, बच्चे, ट्रांसजेंडर और फिर पुरुष भी हैं l स्त्रीवाद के उभार में निश्चित ही स्त्री स्वतंत्रता आन्दोलनों का ईंधन है और स्त्रीवाद के अगले बौद्धिक विकास ही स्त्री आन्दोलनों के अगले चरणों के लिए उत्तरदायी रहे, लेकिन अंततः स्त्रीवाद, मानववाद के उच्च आदर्श को स्पर्श करने लग जाता है जहाँ मनुष्यों का कोई भी वर्गीकरण जो असमानता, शोषण या विशेषाधिकार पर आधारित हो, उसे सिरे से नकारने की पुरजोर कवायद बन जाता है l विश्व राजनीति के विषयों में तो स्त्रीवाद उन प्रविधियों की बात करने लग जाता है जो पर्यावरण, समाज, देश आदि के सर्वांगीड़ और सतत विकास का पैरोकार हैं l स्त्रीवाद की लड़ाई कुछ सबसे मुश्किल लड़ाइयों में है क्योंकि यह व्यक्ति से स्वयं भी लड़नी होती है और समाज से भी l जो पक्षपात हमें लाभ देते हैं, वे एहसास ही नहीं होते कि वे पक्षपात हैं l उन पक्षपातों के बारे में जानना और उन्हें महसूस कर स्वीकार करना दो अलग-अलग बाते हैं l
एक दिन क्लास में मुझे सिमोन द बउवॅा की किताब दी सेकेण्ड सेक्स में उनकी लिखी पंक्ति - “One is not born, but rather becomes, a woman.” समझानी थी l जानता था, यह खासा कठिन होने वाला था l आज आलोक की यह साड़ी वाली फोटो देखी तो मुझे वह काल्पनिक उदाहरण याद आया, जो मैंने क्लास के सामने दिया था l इस उदाहरण को महसूस करके देखिये l
एक सम्मानित बूढ़े पति-पत्नी हैं l दोनों बेहद आधुनिक और समझदार l संजोग कुछ ऐसा कि दोनों पति, पत्नी को उनके बचपन में उनकी बड़ी दीदी ने पाला था l इनकी जब शादी हुई तो उन्हें बच्चे के लिए बहुत इन्तजार करना पड़ा l दोनों की दिली ख्वाहिश थी, कि उन्हें एक प्यारी सी बच्ची पैदा हो l दोनों को अन्दर से लगता भी था कि उनके घर बच्ची ही आएगी पर उनको बेटा पैदा हुआ l खैर, जबतक बेटा यूनिवर्सिटी जाने लायक हुआ पिता की हालत शारीरिक रूप से जर्जर हो चुकी थी l बुलेट से बांका लड़का रोज यूनिवर्सिटी जाने लगा था l एक दिन डॉक्टर ने परिवार को कह दिया कि पिता अब बस कुछ दिनों के मेहमान हैं l एक दिन जाने क्या कौतुक सुझा, मरणासन्न पिता ने अपने बेटे के सामने अजीबोगरीब सी जिद कर दी l उन्होंने कहा कि तुम एक बेटी की तरह सजकर यूनिवर्सिटी जाओगे एक दिन, मुझे लगेगा कि मेरी एक बेटी है जो यूनिवर्सिटी जाने लगी है l अब उस बेटे की मनोदशा महसूस करिए l सोचें, तो बस कपड़े ही तो हैं l स्त्री के कपड़े पहन लेने भर से शरीर में कुछ बदलने वाला नहीं था l यों भी स्त्रियाँ तो धड़ल्ले से पुरुषों के वस्त्र पहनती हैं l इस प्रश्न के मूल को महसूस करिए कि आखिर इस समाज में यदि स्त्री, पुरुष के परिधान पहने तो वह फिर भी सामान्य है लेकिन यदि पुरुष, स्त्री के कपड़े पहने तो वह सहसा हँसी का पात्र कैसे हो जाता है l एक अभिनेता भी जब स्त्री परिधान पहनता है तो वह भी कोई मजाकिया चरित्र ही कर रहा होता है और उसके अभिनय से परिहास ही पैदा होता है l उस लड़के के मन में आती हर झिझक के मूल में जो परतें हैं, स्त्रीवाद उन्हीं परतों को उघाड़ने का नाम है l बहुधा किसी से पूछो तो वह बेफिक्र होकर कह देता है कि हाँ वह स्त्रीवाद समझता है और उसके तर्कों से सहमत भी है लेकिन उसे जीवन में उतारना साहस का काम हैं l यह साहस अनमोल है l आलोक के इस चित्र में वही साहस है l आलोक हिंदी के युवा चर्चित लेखकों में से हैं, समझा जा सकता है कि सार्वजनिक तौर पर इस चित्र को लगाने में कितने नैतिक बौद्धिक साहस की मांग रही होगी, लेकिन उनकी सहजता तोष देती है l उस लड़के ने अपने पिता की खातिर आखिरकार सलवार कमीज पहनी l घर से बाहर निकला l बुलेट उठाई और अनगिन नजरों की परवाह न करते हुए यूनिवर्सिटी पहुंचा l उसे देखकर चपरासी की हँसी नहीं रुक रही थी l पुरुष अध्यापक सामने से हँस उसे पागल कह रहे रहे l स्त्री अध्यापिकाओं को मानो क्या मिल गया था, वह स्त्रीवाद पढ़ाने वाली मैम भी बेतहाशा हँस रही थीं l उस लड़के की गर्लफ्रेंड उस पर आगबबुला हो गयी फिर शर्मिंदा हो गयी l उसके दोस्तों को तो जैसे लाइफटाइम कोई जोक मिल गया था l दिन जैसे-तैसे बिताया उस लड़के ने और घर वापस आया l लड़के के मन में बहुतेरे सवाल आए l पितृसत्तात्मकता से ग्रसित तो स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं l स्त्री को तो बहुधा एहसास भी नहीं है कि वह पितृसत्तात्मकता से ग्रस्त है l स्त्रीवाद दरअसल किसी भी सत्तात्मकता के विरोध में है फिर वह चाहे मातृसत्तात्मकता ही क्यों न हो l
वह क्लास इतनी लम्बी खिंची कि फिर सबके आँखों में आंसू आए l अगली कई क्लासों में शुरू के दस मिनट मैंने विद्यार्थियों से जो भी वे अपने आसपास देखते थे, उनमें स्त्रीवाद के विमर्श की गुंजायश ढूंढकर उन्हें साझा करने का काम दिया l पहले लड़कियों ने हिम्मत दिखाई, फिर लड़के खुलने शुरू हुए l मुझमें एक मर्दवादी इंसान बड़ी शातिरपन से भीतर बैठा है, कई बार एहसास हुआ l धीरे-धीरे उस पर काम किया मैंने, अभी भी कोशिश कर रहा हूँ कि मेरी भाषा में मेरी समझ में किसी व्यक्ति को मै समूचा ही स्वीकार करूँ न कि उन मानकों से उसे देखूं जिसमें उसका चयन नदारद है l
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